जब भगवान विष्णु ने खुद को पत्थर बना लिया क्योंकि…! जानिए धर्म का गहरा रहस्य!
जानिए उस रहस्यमयी कथा को जब भगवान विष्णु ने खुद को पत्थर बना लिया , क्योंकि एक पतिव्रता स्त्री के शाप ने बदल दी सृष्टि की दिशा। तुलसी और शालग्राम की यह दिव्य कथा पढ़ें।”

भगवान विष्णु को “पालनहार” कहा जाता है वे सृष्टि के संतुलन के रक्षक हैं। वे हर युग में अपने भक्तों की रक्षा करने और धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक बार स्वयं विष्णु भगवान ने खुद को पत्थर बना लिया था?
क्योंकि ऐसा न करने पर संपूर्ण सृष्टि संकट में पड़ सकती थी। यह कथा न केवल रहस्यमयी है, बल्कि इसमें छिपा है अहंकार, प्रेम और मोक्ष का गहरा संदेश।
*कथा का आरंभ;
प्राचीन काल में गंधकी नदी के तट पर एक महान तपस्विनी रहती थीं —
उनका नाम था तुलसी (या वृंदा)।
वह अत्यंत पवित्र और देवी तुलसी के रूप में पूजनीय थीं।
वृंदा ने कठोर तप किया और भगवान विष्णु से वरदान पाया कि —
“मेरे पति सदा धर्म के मार्ग पर चलें और किसी भी देवता या असुर से पराजित न हों।”
विष्णु ने वरदान दिया और कहा —
“तुम्हारा पति वीर होगा, किंतु तुम्हारी भक्ति की परीक्षा अवश्य होगी।”
वृंदा का विवाह हुआ शंखचूड़ नामक असुर से, जो शिव भक्त और धर्मनिष्ठ था, परंतु असुर जाति का था।
उसके शरीर पर वृंदा की पवित्रता का कवच था , जब तक वह पतिव्रता है, कोई भी देवता उसे नहीं हरा सकता।
देवताओं की समस्या
शंखचूड़ अत्यंत शक्तिशाली हो गया था।
उसके कारण देवता भयभीत थे , कोई उसे पराजित नहीं कर पा रहा था।
वह अपने राज्य में सबको कहता —
“मैं धर्मपालक हूँ, पर मैं विष्णु या शिव के सामने नहीं झुकूंगा।”
देवता भगवान शिव और विष्णु के पास गए और बोले —
“प्रभु, यह असुर सब लोकों को जीत चुका है। अगर इसे न रोका गया, तो अधर्म बढ़ जाएगा।”
विष्णु बोले —
“वह तब तक अजेय रहेगा, जब तक उसकी पत्नी वृंदा की पतिव्रता शक्ति उसे बचा रही है।”
अब प्रश्न था , उस शक्ति को कैसे हटाया जाए?
*श्री हरि विष्णु की लीला
भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का वेश धारण किया और वृंदा के सामने प्रकट हुए।वह तपस्या में लीन थीं।
विष्णु बोले —
“वृंदा, युद्ध समाप्त हो गया, मैं विजयी लौट आया।”
वृंदा ने अपने पति को देखकर प्रणाम किया और उनका स्वागत किया।
लेकिन जब उसने ध्यान लगाया, तो भीतर से एक आवाज़ आई —
“ये तुम्हारे पति नहीं, स्वयं भगवान विष्णु हैं।”
वह काँप उठी। उसकी पतिव्रता शक्ति भंग हो गई।
उसी क्षण असली शंखचूड़ युद्धभूमि में देवताओं द्वारा पराजित होकर मारा गया।
*वृंदा का शाप
वृंदा क्रोधित और दुखी हुई।
वह बोली —
“हे विष्णु! आपने मेरे सत्य और विश्वास को भंग किया।
आपने छल से मेरे पति की मृत्यु कराई।
इसलिए मैं आपको शाप देती हूँ ,
कि आप भी आज से पत्थर बन जाएंगे, जैसे मेरा हृदय इस क्षण पत्थर हो गया है।”
वृंदा ने अपने प्राण त्याग दिए।
उनके शरीर से तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ , जो आज भी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है।
विष्णु का पत्थर बनना
वृंदा के शाप से भगवान विष्णु तत्काल शालग्राम शिला में परिवर्तित हो गए।
देवताओं ने विनती की ,
“प्रभु, सृष्टि का क्या होगा?”
विष्णु बोले
“मैं पत्थर के रूप में रहूँगा ताकि लोग याद रखें कि छल का अंत हमेशा दुःख देता है।”
उनका शालिग्राम स्वरूप आज भी गंधकी नदी (नेपाल) में मिलता है।
शालग्राम शिला की पूजा करना विष्णु स्वरूप की पूजा माना जाता है।
देवी तुलसी का पुनर्जन्म और क्षमा
समय बीत गया।
भगवान विष्णु ने देवी तुलसी से क्षमा माँगी और कहा —
“तुम्हारा तप, तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी भक्ति अमर रहेगी।”
उन्होंने वरदान दिया “जिस घर में तुलसी और शालग्राम की संयुक्त पूजा होगी, वहाँ सदैव लक्ष्मी का वास रहेगा।”

इसलिए आज भी हर हिंदू घर में तुलसी का पौधा और भगवान शालग्राम शिला (या विष्णु स्वरूप) को एक साथ पूजते हैं।
यह “तुलसी-शालग्राम विवाह” इसी घटना की स्मृति में मनाया जाता है।
इस कथा का आध्यात्मिक रहस्य
यह कथा केवल एक पौराणिक प्रसंग नहीं ,बल्कि एक गहरा संदेश देती है।
भगवान विष्णु स्वयं सर्वज्ञ होने के बाद भी “शाप” स्वीकार करते हैं क्योंकि
“धर्म की रक्षा के लिए कभी-कभी भगवान भी अपने कर्मों का फल भोगते हैं।”
यह दिखाता है कि सत्य और पवित्रता की शक्ति इतनी महान है कि देवता भी उसके आगे झुकते हैं।
वृंदा का पतिव्रत धर्म और विष्णु का त्याग दोनों ही इस कथा को अनंत बना देते हैं।
कथा से मिलने वाले जीवन-संदेश
1. सत्य और भक्ति अमर हैं। छल से मिली विजय अंततः पीड़ा देती है।
2. स्त्री की श्रद्धा और पतिव्रता की शक्ति अद्भुत होती है यह सृष्टि की रक्षा करती है।
3. भगवान भी नियमों से बंधे हैं, वे अपने भक्तों की भावना का मान रखते हैं।
4. क्षमा और समर्पण ही मोक्ष का मार्ग हैं जैसा अंत में तुलसी ने किया।
5. जीवन में जब कठिन निर्णय आएं, तो याद रखें धर्म का मार्ग कठिन होता है, पर सत्य की जीत होती है।
धार्मिक महत्व (शालग्राम शिला की पूजा क्यों की जाती है)
शालग्राम शिला भगवान विष्णु का साक्षात रूप है।
इसकी पूजा बिना मूर्ति स्थापने के भी पूर्ण फल देती है।
तुलसी पत्र के बिना शालग्राम की पूजा अधूरी मानी जाती है।
शालग्राम और तुलसी के मिलन को विष्णु-लक्ष्मी के मिलन का प्रतीक कहा गया है।
शास्त्रों में कहा गया है —
“तुलसी दलमात्रेण जलस्य च तुला ह्रदः।
अर्चयेत् यः शालग्रामं स याति परमां गतिम्॥”
अर्थात जो व्यक्ति तुलसी दल और जल से शालग्राम की पूजा करता है, उसे परम गति प्राप्त होती है।
“जब भगवान विष्णु ने खुद को पत्थर बना लिया” यह कहानी सिखाती है कि
ईश्वर का सबसे बड़ा रूप त्याग और संतुलन है।
भगवान विष्णु ने पत्थर बनकर हमें यह दिखाया कि
भले ही सत्य के मार्ग पर कितनी भी कठिनाई क्यों न हो,
पर धर्म की रक्षा और भक्ति
की मर्यादा हमेशा सर्वोपरि है।

तुलसी का पौधा और शालग्राम शिला आज भी हमें याद दिलाते हैं !
“जहाँ प्रेम, भक्ति और सच्चाई है, वहीं सच्चा भगवान श्री हरि विष्णु वास करते है।”














